'36 फार्महाउस' अधपकी खिचड़ी... मनोरंजन का जायका कहां से मिलेगा


  • डायरेक्शन: राम रमेश शर्मा
  • स्टोरी, म्यूजिक, लिरिक्स: सुभाष घई
  • डायलॉग्स: शरद त्रिपाठी, सुभाष घई
  • सिनेमैटोग्राफी: अखिलेश श्रीवास्तव
  • एडिटिंग: शशांक माली, अनुभव सारदा
  • जॉनर: कॉमेडी सस्पेंस
  • स्क्रीनप्ले: मुक्ता स्टोरी लैब
  • बैकग्राउंड म्यूजिक-अरेंजर: अभिषेक बोंथु
  • स्टार कास्ट: अमोल पाराशर, बरखा सिंह, संजय मिश्रा, विजय राज, फ्लोरा सैनी, अश्विनी कलसेकर, माधुरी भाटिया, राहुल सिंह, इशिता देशमुख, निवेदिता भार्गव, गौरव घाटणेकर, प्रीतम कागणे, प्रदीप बाजपेयी, लिजा सिंह, हेतल पुनिवाला
  • रन टाइम: 107:33 मिनट

फिल्म '36 फार्महाउस' उस बेस्वाद खिचड़ी की भांति है, जिसका एक भी निवाला गले से नीचे नहीं उतरता। सुभाष घई ने फिल्म की स्टोरी के साथ गाने भी लिखे हैं। यहां तक कि धुनें भी तैयार की हैं। शुक्र है निर्देशन नहीं किया। बरसों पहले 'शोमैन' का रुतबा खो चुके सुभाष ओटीटी के लिए अपने इस एक्सपेरिमेंट में फेल साबित हुए हैं। मूवी देखकर यही जेहन में आता है कि आखिर मेकर्स दिखाना क्या चाहते थे? ​मेकर्स कोई भी हो, उन्हें यह बात जेहन में जरूर रखनी चाहिए कि ओटीटी का मतलब यह कतई नहीं है कि दर्शकों को कुछ भी चिपका दो।

मर्डर मिस्ट्री या फैमिली कॉन्फ्लिक्ट

2020 में देश में कोरोना वायरस महामारी के कारण लॉकडाउन है। लोग जैसे-तैसे अपने गांव की ओर जा रहे हैं। मुंबई के बाहरी इलाके में एक फार्महाउस है, जिसकी ओनर है पद्मिनी सिंह (माधुरी भाटिया)। पद्मिनी बड़े बेटे रौनक सिंह (विजय राज) को फार्महाउस और 300 एकड़ जमीन का वारिस बना चुकी है। रौनक स्वभाव से अक्खड़ है। रौनक के दो भाई भी प्रॉपर्टी में हिस्सा चाहते हैं। उनका वकील प्रतीक कक्कड़ पैगाम लेकर फार्महाउस आता है, पर लौटता नहीं है। फिर शुरू होती है पुलिस की तफ्तीश...। इधर, जय प्रकाश (संजय मिश्रा) कुक बनकर फार्महाउस की हाउसकीपर बेनी (अश्विनी कलसेकर) के संग वहां आ जाता है। यही नहीं, जय प्रकाश का बेटा हैरी (अमोल पाराशर) भी पद्मिनी की नातिन अंतरा (बरखा सिंह) के साथ फार्महाउस में पहुंच जाता है। बस, एक-एक कर कई कैरेक्टर का कुनबा फार्महाउस में जुटता जाता है और कहानी 'मांझे' की माफिक उलझ जाती है। 

सुर है ना ताल है...

कहानी घटिया है। स्क्रीनप्ले थर्ड क्लास। किरदारों के कैरेक्टर ग्राफ को विस्तार ही नहीं दिया। सभी किरदार एकदम सतही लगते हैं। इनमें कोई गहराई नहीं है। राम रमेश शर्मा का निर्देशन दोयम दर्जे का है। मर्डर मिस्ट्री है, कॉमेडी है या फैमिली ड्रामा, फिल्म में किसी को लेकर क्लैरिटी नहीं दिखती। ह्यूमर छिछला है, हंसी ही नहीं आती। सुर है ना ताल है, बस देखने वाले की 'जिंदड़ी' बेहाल है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक, एडिटिंग और सिनेमैटोग्राफी में भी कुछ ऐसा नहीं है जिसका अलग से उल्लेख किया जा सके। हालांकि, जिस तरह की पृष्ठभूमि चुनी गई थी, उसमें दिखाने और करने के लिए बहुत सम्भावनाएं थीं। 

परफॉर्मेंस मे भी फिसड्डी

विजय राज और संजय मिश्रा ने ओवरएक्टिंग की है। वो गैरजरूरी तौर पर लाउड नजर आते हैं। संजय ने बचकानी कॉमेडी की है, जो मौजूदा दौर में बासी है। इस पर हंसी आना तो दूर की बात है। अमोल पाराशर और बरखा सिंह कुछ खास नहीं कर सके। हालांकि उनकी ही एंट्री से कुछ अच्छे पल आते हैं। अश्विनी कलसेकर ने खुद को दोहराया है। माधुरी भाटिया कहीं-कहीं जरूर इम्प्रेसिव हैं। फ्लोरा सैनी ठीक हैं। राहुल सिंह ने खुद को जाया किया है। बहरहाल, फार्महाउस में लोग जीवन की भागदौड़ से दूर कुछ सुकून के पल बिताने जाते हैं लेकिन यह '36 फार्महाउस' सुकून देना तो दूर दिमाग में खलबली मचा देता है। मेकर्स ने दर्शकों को मनोरंजन नहीं दिया, बल्कि उनके 107 मिनट खराब किए हैं।

रेटिंग: ½