मुंबई सागा: नहीं बजता मनोरंजन का डंका, सिर्फ मचता है शोर


  • बैनर: टी-सीरीज फिल्म्स, व्हाइट फेदर फिल्म्स
  • डायरेक्शन-राइटिंग: संजय गुप्ता   
  • जॉनर: एक्शन क्राइम
  • स्क्रीनप्ले: रॉबिन भट्ट, संजय गुप्ता
  • एडिशनल डायलॉग्स: वैभव विशाल
  • म्यूजिक: यो यो हनी सिंह, पायल देव
  • ओरिजनल बैकग्राउंड स्कोर: अमर मोहिले
  • डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी: शिखर भटनागर
  • एडिटिंग: बंटी नेगी 
  • रनटाइम: 127.32 मिनट
  • स्टार कास्ट: जॉन अब्राहम, इमरान हाशमी, सुनील शेट्टी, काजल अग्रवाल, महेश मांजरेकर, अंजना सुखानी, अमोल गुप्त, रोहित रॉय, प्रतीक बब्बर, गुलशन ग्रोवर, समीर सोनी, शाद रंधावा, सुनील शेट्टी, राजेन्द्र गुप्ता

फिल्म 'मुंबई सागा' वह गैंगस्टर ड्रामा है, जो इस जॉनर की फिल्मों के बरसों से चले आ रहे सेट फॉर्मूले पर है। इसमें भरपूर एक्शन है, दिल खोलकर डायलॉगबाजी है, गोलियों की गूंज है तो खून-खराबा भी। बस जो अहम बिंदु मिसिंग है, वो है नयापन। इसी की कमी की वजह से ये सारा धूम-धड़ाका कुछ खास कमाल नहीं कर पाता। ये सब ओवरडोज लगता है, जो कुछ देर ही अच्छा लगता है। एक समय बाद दिल से आवाज आती है कि अब बस करो, कब तक नए पैकेट में पुराने दौर का सामान दोगे। 

खैर, फिल्म की कहानी सच्ची घटनाओं पर आधारित है, जिसकी पृष्ठभूमि में 1980 व 90 के दशक की मुंबई है। यह वह दौर था, जब मुंबई बॉम्बे था और गैंगवार इसकी रगों में घुला हुआ था। गैंगस्टर गायतोंडे (अमोल गुप्ते) के गुंडे दुकानदारों से हफ्ता वसूली में लगे हैं। गठीले बदन के युवा अमर्त्य राव(जॉन अब्राहम) के पिता की भी मार्केट में भाजी-तरकारी की दुकान है। वो भी हमेशा हफ्ता देते रहे हैं लेकिन एक दिन अमर्त्य का 12 वर्षीय भाई अर्जुन उनके खिलाफ आवाज बुलंद करता है और एक गुंडे से उलझ जाता है। अपना खौफ बनाए रखने के लिए वह गुंडा उसे रेलवे ब्रिज से नीचे फेंक देता है। हालांकि अमर्त्य जैसे तैसे करके अर्जुन को बचा लेता है लेकिन उसकी खराब हालत देख वह अपना आपा खो देता है और इन गुंडों की जमकर धुनाई करता है। गायतोंडे जेल में है और वहीं से वह अपना साम्राज्य चला रहा है। अपने आदमियों की इतनी बुरी तरह पिटाई की बात सुनकर वह अपने खरीदे हुए पुलिसवाले से कहकर अमर्त्य को जेल में बंद करवा देता है। जमानत पर बाहर आने के बाद अमर्त्य मुंबई पर राज करने वाले भाऊ (महेश मांजरेकर) की सरपरस्ती में कम समय में ही अंडरवर्ल्ड के रंग-ढंग में ढल जाता है। अब अमर्त्य का सिक्का चलता है। फिर कहानी घिसे-पिटे तरीके के ट्विस्ट्स के साथ आगे बढ़ती है।

जॉन और इमरान के कंधों पर टिकी है 

जॉन अब्राहम एक्शन दृश्यों में बेखौफ लगते हैं और यह उनकी पर्सनैलिटी पर भी फिट बैठता है मगर इंटेंस और इमोशनल सीन में उनके एक्सप्रेशन 'सहमे' हुए से हैं। इमरान हाशमी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कॉप के रोल में हैं। हालांकि उनकी एंट्री इंटरवल के बाद होती है लेकिन असरदार हैं। जॉन व इमरान के वन-लाइनर्स मास ऑडियंस को अपील करते हैं। महेश मांजरेकर चतुर इंसान के अपने किरदार में जंचते हैं। विलेन के रूप में अमोल गुप्ते बेअसर हैं। प्रतीक बब्बर और रोहित रॉय ठीक हैं। काजल अग्रवाल और अंजना सुखानी को ज्यादा स्क्रीन स्पेस नहीं मिला। जितना भी मिला, उसमें भी ये दोनों कुछ ऐसा नहीं कर पाई, जो याद रह जाए। सुनील शेट्टी और गुलशन ग्रोवर कैमियो में हैं, जो उस दायरे में ठीक हैं। समीर सोनी, शाद रंधावा और अन्य सपोर्टिंग कास्ट के हिस्से में करने को कुछ ज्यादा नहीं है।

पटकथा के ढीलेपन से फिल्म की गति पड़ जाती है सुस्त

राइटिंग व डायरेक्शन में संजय गुप्ता अपने पुराने ढर्रे पर ही हैं। कहानी में ताजगी जरा भी महसूस नहीं होती। स्क्रीनप्ले में कसावट का अभाव है, जिसका असर फिल्म की रफ्तार पर पड़ता है। डायलॉग्स टिपिकल गैंगस्टर मसाला फिल्मों की तरह हैं। जो माहौल पहला हाफ तैयार करता है, वह दूसरे हाफ में धुंधला और सुस्त होने लगता है। अगर एडिटिंग टाइट की गई होती तो शायद यह क्रिस्प हो सकता था। फिल्म में दो ही गाने हैं, 'डंका बजा' और 'शोर मचेगा'। म्यूजिक के नाम पर सिर्फ शोर ही मचता है। बैकग्राउंड स्कोर जरूर ओके है मगर सिनेमैटोग्राफी में प्रभावित करने वाली कोई बात नहीं है।

क्यों देखें: अगर आपने संजय गुप्ता की ​गैंगस्टर और क्राइम थ्रिलर फिल्में देखी हैं तो यह उनकी उसी स्टाइल की फिल्म है। ट्रीटमेंट में कुछ नया नहीं है। वही पुराने दांव-पेंच आजमाए हैं, जो असर दिखाने में नाकाम रहे हैं। बहरहाल, अगर आप जॉन व इमरान के प्रशंसक हैं और गैंगस्टर ड्रामा में थोड़ा बहुत इंटरेस्ट रखते हैं तो इस '..सागा' के लिए सिनेमाहॉल का रुख कर सकते हैं। 

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