कास्ट सिस्टम का भयावह चेहरा दिखाती है 'आर्टिकल 15'


  • डायरेक्शन : अनुभव सिन्हा
  • राइटिंग : अनुभव सिन्हा, गौरव सोलंकी
  • म्यूजिक : अनुराग सैकिया, गिंगर शंकर, डिवाइन, पीयूष शंकर
  • बैकग्राउंड स्कोर : मंगेश धाकडे
  • सिनेमैटोग्राफी : इवान मुल्लीगन
  • एडिटिंग : यशा रामचंदानी
  • स्टार कास्ट : आयुष्मान खुराना, ईशा तलवार, सयानी गुप्ता, नासर, मनोज पाहवा, कुमुद मिश्रा, मोहम्मद जीशान अयूब, रोंजिनी चक्रवर्ती, आकाश दाभाडे, शुभ्रज्योत भारत
हमारे देश में कास्ट सिस्टम की जड़ें बहुत गहरी हैं। तकनीक के मौजूदा दौर में जहां देश-दुनिया में नए-नए आविष्कार हो रहे हैं, वहीं देश के बहुत से इलाकों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जाति को लेकर भेदभाव आज भी जारी है। आज भी उच्च जाति के लोग दलित वर्ग के लोगों का छुआ खाने से परहेज करते हैं। जबकि हमारे संविधान का आर्टिकल 15 कहता है कि किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, नस्ल, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। निर्देशक अनुभव सिन्हा की फिल्म 'आर्टिकल 15' में इसी मुद्दे को दर्शकों के सामने रखा है। अनुभव की पिछली फिल्म 'मुल्क' थी, जिसमें उन्होंने मजहब को लेकर देश के लोगों में व्याप्त 'हम' और 'वो' की मानसिकता पर सवाल उठाए थे। अब 'आर्टिकल 15' में उन्होंने कास्ट सिस्टम पर करारा प्रहार किया है।

​तीन रुपए के लिए रेप और मर्डर

इस फिल्म की कहानी एक न्यायसंगत और ईमानदार पुलिस अधिकारी की है, जो जातिवाद से संबंधित अपराध की गुत्थी सुलझाने की कोशिश करता है। विदेश में पढ़े-लिखे आईपीएस ऑफिसर अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) को सजा के तौर पर उत्तर प्रदेश के लालगांव में पोस्टिंग दी है। जब वह गाड़ी में बैठकर इलाके में आ रहा होता है तो वहां के नजारे देख मोहित हो जाता है, लेकिन अगले ही पल ड्राइवर चंद्रभान सिंह उसे गांव की असल वास्तविकता से भी रूबरू करवाना शुरू कर देता है। वह बताता है कि यहां अपर कास्ट के लोग एससी और एसटी वर्ग के लोगों के हाथ का छुआ पानी भी नहीं पीते हैं। जैसे ही वह ड्यूटी जॉइन करता है, उसे गांव में दलित समुदाय की तीन लापता लड़कियों से जुड़े केस के बारे में पता चलता है। इस केस की जांच में पुलिस इसलिए ढिलाई बरत रही है, क्योंकि थाने में पहले से मौजूद पुलिसकर्मियों की नजर में यह 'इन लोगों' का आए दिन का काम है। यानी इस समुदाय विशेष के लोग अक्सर झूठी शिकायतें दर्ज कराते हैं। लेकिन अगले ही दिन उन तीन में से दो लड़कियों शालू और ममता की लाश एक पेड़ पर लटकी हुई मिलती है। तीसरी लड़की पूजा अभी तक लापता है। अयान के अधीन काम करने वाला सर्किल ऑफिसर ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा) मामले को निपटाने की कोशिश करता है। वह कहता है कि दोनों लड़कियां कजिन थी और दोनों में समलैंगिक संबंध थे। इसकी जानकारी दोनों के पिता को चल गई थी और उन्होंने गुस्से में आकर दोनों को लटका दिया। लेकिन अयान को मामले में साजिश की बू आती है। वह खुद इन्वेस्टिगेशन शुरू कर देता है, जिसमें उसके सामने ऐसी बातें आती हैं, जो उसे हिलाकर रख देती हैं। उसे पता चलता कि लड़कियों का रेप और मर्डर सिर्फ इसलिए कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने अपनी दिहाड़ी 25 रुपए में तीन रुपए और बढ़ाने की मांग कर दी थी। जहां वे काम करती थीं, वहां के मालिक ने दिहाड़ी बढ़ाने से इनकार कर दिया। ऐसे में तीनों लड़कियां काम छोड़ कर कहीं और काम करने लग गईं। इस दौरान अयान के सामने जाति को लेकर भेदभाव की भी कई परतें खुलने लगती हैं।

शुरू से अंत तक दिलचस्प

सच्ची घटनाओं से प्रेरित इस फिल्म में अनुभव सिन्हा का निर्देशन काबिले-तारीफ है। उन्होंने ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर हाथ आजमाया, जिस पर काम करने से फिल्म मेकर्स कतराते हैं। अनुभव को एक वर्ग और संगठन के विरोध का भी सामना करना पड़ा। बहरहाल, उन्होंने को-राइटर गौरव सोलंकी के साथ जिस शिद्दत व गहराई से कहानी और किरदारों को गढ़ा, उससे 'आर्टिकल 15' ठीक उसी तरह दर्शकों को जोड़ने में कामयाब रही है, जिस तरह उनकी फिल्म 'मुल्क' ने जोड़ा था। फिल्म में एक क्रांतिकारी दलित के संवाद 'मैं और तुम इन्हें दिखाई ही नहीं देते हैं। हम कभी हरिजन हो जाते हैं तो कभी बहुजन हो जाते हैं। बस, जन नहीं बन पाते हैं...' से पूरी फिल्म का मर्म समझा दिया। दलित वर्ग की विवशता और उनके गुस्से को जिस तरह से उन्होंने विभिन्न दृश्यों व संवादों से दर्शाया, वह काफी असरदार है। यहां तक कि उन्होंने हमारी सभ्यता की विषमता के साथ ही राजनीति की उस तस्वीर को दिखाया, जिसमें जातियां पॉलिटिशियंस के लिए सिर्फ वोट बैंक हैं। एक दृश्य में किरदार के आपसी संवाद के बीच राजनीतिक दलों के चुनाव चिह्नों पर भी बेबाकी से चर्चा की गई। इसके अलावा एक संवाद यह भी है कि 'हमें हीरो नहीं चाहिए, बल्कि ऐसे लोग चाहिए, जो हीरो का वेट नहीं करते हैं...'। यह संवाद संदेश देता है कि देश की परिस्थितियां तभी बदल सकती हैं, जब लोग खुद प्रयास करने शुरू कर दें।

उम्दा कलाकार, दिलकश अदाकारी

आयुष्मान खुराना पिछले दो वर्षों में 'बरेली की बर्फी', 'शुभ मंगल सावधान', 'अंधाधुन' और 'बधाई हो' जैसी हिट फिल्में अपने नाम कर चुके हैं और हर फिल्म में उनका किरदार दिलों में जगह बनाने में कामयाब रहा है। इस मूवी में भी उन्होंने पुलिस अधिकारी का किरदार दिल से निभाया है। उनका किरदार ऐसा है, जो कई जगह तो एकदम चुप्पी साध लेता है और कई जगह आंखों के इशारों से ही अपनी बात कह जाता है। 'मुल्क' में मनोज पाहवा का एक अलग ही रूप देखने को मिला था। अब अनुभव ने उनसे फिर से अलहदा किरदार में बेहतरीन अभिनय करवाया है। कुमुद मिश्रा के किरदार में वैरिएशन है, जिसे उन्होंने खूबसूरती से जीया है। सयानी गुप्ता भी अपनी अदाकारी की छाप छोड़ने में सफल रही हैं। मोहम्मद जीशान अयूब सरप्राइज पैकेज की तरह हैं, जो कुछ दृश्यों में ही बाजी मार ले जाते हैं। ईशा तलवार के लिए करने को ज्यादा कुछ नहीं है, पर वह अपने किरदार में फिट हैं। अन्य सहायक कलाकारों की परफॉर्मेंस भी ठीक है। सिनेमैटोग्राफी फिल्म के मिजाज के अनुरूप है तो बैकग्राउंड स्कोर भी सराहनीय है। हालांकि यह बेहतर हो सकता था।

इसलिए देखें : 'आर्टिकल 15' एक ऐसी फिल्म है, जो भारतीय समाज के उस कुरूप चेहरे को सामने लाती है, जिसको हम रोजमर्रा के जीवन में अपने आसपास तो देखते हैं, लेकिन उसका रूप बदलने की कोशिश नहीं करते हैं। फिल्म की पटकथा, अभिनय और निर्देशन अच्छा है। चूंकि  कोई फिल्म परफेक्ट नहीं होती, इसलिए इसमें भी कई कमियां हैं। इन सबके बावजूद 'आर्टिकल 15' ऐसी फिल्मों में से एक है, जो कम ही बनती हैं। इसलिए जरूर देखें...।

रेटिंग: ½