'...302' का शुरुआत में ही 'मर्डर'; राइटिंग, डायरेक्शन, एक्टिंग, म्यूजिक समेत सभी पहलू दोषी

  • डायरेक्शन: नवनीत बी सैनी
  • राइटिंग: नवनीत-विशाल
  • म्यूजिक: साजिद-वाजिद
  • डायलॉग्स: संजय मासूम
  • सिनेमैटोग्राफी: रवि वालिया
  • एडिटिंग: इरफान इशाक
  • जॉनर: सस्पेंस थ्रिलर 
  • लिरिक्स: जलीस शेरवानी
  • बैकग्राउंड म्यूजिक: संदीप शिरोडकर
  • कोरियोग्राफर: शबिना खान
  • स्टारकास्ट: इरफान खान, रणवीर शौरी, दीपल शॉ, लकी अली, नौशीन अली सरदार
  • रन टाइम: 120 मिनट

इरफान खान भले ही अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी बेहतरीन अदाकारी लोगों के दिलों में रची-बसी है। किन्हीं कारणों से करीब 14 साल तक ठंडे बस्ते में रही उनकी फिल्म 'मर्डर एट तीसरी मंजिल 302' अब ओटीटी प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम हुई है। मूवी बोरिंग है। ऐसा लगता है कि बेसिर-पैर की इस कहानी का शुरुआत में ही 'मर्डर' हो गया है। हालांकि इरफान की स्क्रीन प्रजेंस और सम्मोहित कर देने वाली आवाज 'भावुक' कर देती है। ​हालांकि दिल में एक अफसोस यह रहता है कि काश, यह फिल्म स्ट्रीम नहीं की जाती। वजह, स्लॉपी क्राइम थ्रिलर 'मर्डर...' इरफान की फिल्मोग्राफी में अच्छी फिल्मों के एवरेज को बिगाड़ देती है। कई बेहतरीन फिल्मों की जो लेगसी इरफान छोड़कर गए हैं। उन पर यह एक 'धब्बे' जैसी मालूम पड़ती है।

अपहरण और फिरौती का खेल...

कहानी की शुरुआत में बैंकॉक के मशहूर उद्योगपति अभिषेक दीवान (रणवीर शौरी) की पत्नी माया (दीपल शॉ) अचानक गायब हो जाती है। अभिषेक के पास चांद का फोन आता है और वह बताता है कि उसने माया का अपहरण किया है। किडनैपर चांद (इरफान खान) अभिषेक से पांच लाख डॉलर की फिरौती की मांग करता है। इधर, अभिषेक अपहरण की सूचना पुलिस को देता है। इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर तेजिंदर सिंह (लकी अली) अपनी असिस्टेंट के साथ तफ्तीश में जुट जाता है। हालांकि केस की तहकीकात करने का इनका अंदाज बेवकूफी भरा है। इसके बाद कहानी में एक ट्विस्ट आता है। 

लड़खड़ाता स्क्रीनप्ले, डगमगाता निर्देशन

पटकथा में खामियों की भरमार है। इसमें मॉडर्न टच की कमी है। बहुत सी चीजें असंगत है। कहानी में चरित्र भी खराब लिखे गए हैं। नवनीत का निर्देशन लचर है। फिल्म में पेस मिसिंग है, जिससे यह कहीं भी असरदार नहीं लगती। जैसे-तैसे गिरते-पड़ते आगे बढ़ती फिल्म जरा भी रोमांच क्रिएट करने में नाकाम रही है। एडिटिंग घटिया है। एक सीन से दूसरे सीन में बहुत ज्यादा जम्प होती है। म्यूजिक ओल्ड फैशन्ड है। एक भी गाना ऐसा नहीं है, जो दिल को थोड़ा सा भी सुकून दे। लोकेशंस ठीक-ठाक हैं। सिनेमैटोग्राफी  कामचलाऊ है। 

इरफान की यादें...

इरफान खान की परफॉर्मेंस यानी मौजूदगी ही फिल्म का प्लस पॉइंट है। हालांकि उनके ट्रेडमार्क वन-लाइनर्स इस बार कम हैं। दीपल शॉ की एक्टिंग में कहीं भी कॉन्फिडेंस नहीं दिखता। यही वजह है कि वह एक्टिंग में लंबी पारी नहीं खेल सकीं। रणवीर शौरी अपने रोल से न्याय नहीं करते। वे एकदम साधारण लगे हैं। बचकाने रोल में लकी ने खुद को वेस्ट किया है। कॉप के रूप में वह न तो मजाकिया हैं, न ही गंभीर। नौशीन अली सरदार खुद ही यह नहीं समझ पायीं कि उन्हें करना क्या है। बहरहाल, फिल्म मौजूदा दौर में एकदम भी फिट नहीं बैठती। फिल्म प्रीडिक्टेबल है। वैसे भी ओटीटी के जमाने में ऐसा थ्रिलर मजाक ही है। सवाल यही उठता है कि आखिर इस फिल्म को 'कोल्ड स्टोरेज' से निकाला ही क्यों गया? आप इरफान की अदाकारी के फैन रहे हैं तो उन्हें ट्रिब्यूट देने के लिहाज से जरूर इसे देख सकते हैं।

रेटिंग: ½