बेजान कहानी में 'खानदानी शफाखाना' का नुस्खा नहीं डाल पाया जान
- डायरेक्शन: शिल्पी दासगुप्ता
- राइटर: गौतम मेहरा
- म्यूजिक: तनिष्क बागची, बादशाह, रोचक कोहली, पायल देव, विपुल मेहता
- बैकग्राउंड स्कोर: अभिषेक नैलवाल
- सिनेमैटोग्राफी: ऋषि पंजाबी
- एडिटिंग: देव राव जाधव
- स्टार कास्ट: सोनाक्षी सिन्हा, वरुण शर्मा, बादशाह, अन्नू कपूर, प्रियांश जोरा, कुलभूषण खरबंदा, नादिरा बब्बर, राजीव गुप्ता, राजेश शर्मा, खुशी हजारे
- रनिंग टाइम: 137.38 मिनट
जीवन में खुशहाली का नुस्खा
इस कहानी के केंद्र में बेबी बेदी (सोनाक्षी सिन्हा) है, जो एक दवा कंपनी में मेडिकल रिप्रजेंटेटिव का जॉब करती है। उसके पिता नहीं हैं, जबकि भाई भूषित (वरुण शर्मा) एकदम वेल्ला है। वह सिर्फ बहन के भरोसे पल रहा है। ऐसे में परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी बेबी के कंधों पर है। उसकी मुश्किलें इसलिए बढ़ी हुई हैं, क्योंकि उसकी मां (नादिरा बब्बर) ने अपनी दूसरी बेटी सीटू की शादी के लिए अपने देवर (राजीव गुप्ता) से कर्ज लिया था, जिसका वह तकाजा कर रहा है। उसकी नजर उनके घर पर है ताकि कर्ज नहीं चुकाने पर वह उसे हथिया ले और उस जगह पर अपनी बेटी के लिए बुटिक खोल दे। इन झंझटों के बीच एक दिन बेबी को खबर मिलती है कि उसके मामाजी यानी हकीम ताराचंद (कुलभूषण खरबंदा) की उनके ही एक मरीज ने गोली मारकर हत्या कर दी। मामाजी सेक्स क्लिनिक खानदानी शफाखाना चलाते थे और यूनानी चिकित्सा पद्धति से मरीजों की सेक्स संबंधी समस्याओं का निदान करते थे। उनके इलाज से बहुत से लोगों की जिंदगी में खुशहाली लौट आई थी। मामाजी वसीयत में क्लिनिक व अन्य प्रॉपर्टी बेबी के नाम कर गए, लेकिन शर्त के रूप में यह पेच फंसा गए कि बेबी इस संपत्ति की पूरी तरह मालकिन तब होगी, जब वह छह माह तक खानदानी शफाखाना को चलाए। चूंकि बेबी को पैसों की सख्त जरूरत है, इसलिए उसे खानदानी शफाखाना के रूप में उम्मीद की किरण नजर आती है। वह सोचती है कि छह महीने इस क्लिनिक को चलाने के बाद प्राइम लोकेशन की इस प्रॉपर्टी को बेचकर वह कर्ज चुका सकती है। इसके साथ ही घर का इंटीरियर नए अंदाज में करा सकती है और एक हर्बल प्रोडक्ट की एजेंसी ले सकती है। शफाखाना चलाने का वह डिसीजन तो ले लेती है लेकिन उसकी मुश्किलें कम होने के बजाय और बढ़ जाती हैं।बात तो की, पर दूर तलक पहुंचाने का माद्दा नहीं
सेक्सुअल डिसऑर्डर से संबंधित विषय पर 2017 में आई आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर अभिनीत फिल्म 'शुभ मंगल सावधान' को काफी सराहना मिली थी। इस फिल्म में संजीदा विषय को कॉमेडी के पुट के साथ हल्के-फुल्के अंदाज में प्रस्तुत किया था, जिससे फिल्म एंटरटेनमेंट के लिहाज से शुभ मंगल साबित हुई। 'खानदानी शफाखाना' में विषय की रोचकता के मद्देनजर स्क्रिप्ट नहीं रची गई। स्क्रीनप्ले भी उदास सा है यानी क्रिस्प नहीं है। रिसर्च और ट्रीटमेंट के मामले में कमजोरी के चलते फिल्म दर्शकों के दिल को छूने में नाकामयाब रहती है। हालांकि क्लाइमैक्स में फिल्म सोशल मैसेज देती है और संकुचित दिमाग के दरवाजे खोलने को प्रेरित करती है। डेब्यू डायरेक्टर शिल्पी की इस बात के लिए दाद देनी होगी कि उन्होंने ऐसे सब्जेक्ट को दर्शकों के सामने लाने की डेयरिंग की। हालांकि अपने निर्देशकीय कौशल में अनुभव की कमी के कारण वह इसका प्रजेंटेशन बेहतर नहीं कर पाई। बोल्ड और गुप्त विषय पर स्टोरीटेलिंग का अंदाज भी बुझा-बुझा सा है।अभिनय में चमक नहीं दिखती
सोनाक्षी सिन्हा की पिछली फिल्में 'कलंक', 'हैप्पी फिर भाग जाएगी', 'वेलकम टू न्यूयॉर्क' आदि बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकीं। अब 'खानदानी शफाखाना' भी पूरी तरह से उनके कंधों पर टिकी है। उन्होंने अपनी तरफ से बेबी बेदी की भूमिका के साथ न्याय करने की पूरी कोशिश की है, फिर भी उनकी परफॉर्मेंस में वह स्पार्क नजर नहीं आया, जो कि इस कैरेक्टर की डिमांड थी। रैपर-सिंगर बादशाह ने इस फिल्म से एक्टिंग डेब्यू किया है लेकिन यह समझ नहीं आया कि उन्होंने क्या सोचकर एक्टिंग में खुद को आजमाने की कोशिश की। वह अभिनय के मामले में कच्चे हैं या यूं कहें कि पहले उन्हें अभिनय का ककहरा सीखने की जरूरत है। 'चूचा' के रूप में फेमस वरुण शर्मा की कॉमेडी में अच्छी पकड़ है। इस फिल्म में भी वह अपने कॉमिक पंच और टाइमिंग से हंसने का मौका देेते हैं लेकिन अब वह टाइपकास्ट हो चले हैं। वह कुएं का मेढ़क बन चुके हैं जो उससे बाहर नहीं निकलना चाहता। यानी उन्हें अब अपने अभिनय में वैरिएशन लाने की दरकार है। अन्नू कपूर यकीनन जबरदस्त हैं। वह जब भी पर्दे पर आते हैं, एक एक्साइटमेंट लेकर आते हैं। सोनाक्षी के लव इंटरेस्ट के रोल में प्रियांश जोरा के पास ज्यादा स्कोप नहीं था, फिर भी वह अपना काम कर गए। नादिरा बब्बर मां की भूमिका में जमी हैं। कुलभूषण खरबंदा सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं, वहीं राजेश शर्मा की एंट्री भी फिल्म में ताजगी लाती है। राजीव गुप्ता समेत अन्य सह कलाकारों की परफॉर्मेंस ओके है। म्यूजिक औसत से कम है। सिनेमैटोग्राफी बढ़िया है लेकिन एडिटिंग ढीली है, जिसकी वजह से फिल्म घिसटती हुई आगे बढ़ती है।क्यों देखें: 'खानदानी शफाखाना' वह शफाखाना है, जहां बीमारी का तो पता है लेकिन उसका ट्रीटमेंट करने का उचित नुस्खा नहीं है। यानी यहां सब्जेक्ट तो दिलचस्प है, पर सुस्त कहानी और लचर निर्देशन के कारण अच्छे से प्रस्तुत नहीं हो पाया। खैर, समाज की वर्जना को तोड़ने का साहस देती इस फिल्म को सोशल मैसेज के लिए देख सकते हैं, इसके अलावा अन्य कोई वजह मालूम नहीं पड़ती।
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