इस 'जंगली' को बचाना मुश्किल है
- डायरेक्शन : चक रसेल
- स्टोरी : रोहन सिप्पी, चारूदत्त आचार्य, उमेश पाडलकर, रितेश शाह
- स्क्रीनप्ले : एडम प्रिंस, राघव डार
- डायलॉग्स : अक्षत घिल्डिहाल, सुमन अधिकारी
- म्यूजिक : समीर उद्दीन
- सिनेमैटोग्राफी : मार्क इरविन, सचिन गदानकुश
- एडिटिंग : जयेश शिखरखाने, वासुदेवन कोठानदाथ
- स्टार कास्ट : विद्युत जामवाल, पूजा सावंत, आशा भट्ट, मकरंद देशपांडे, अतुल कुलकर्णी, अक्षय ओबेरॉय, विश्वनाथ चटर्जी
- रनिंग टाइम : 115 मिनट
हाथी और इंसान की मजबूत बॉन्डिंग को दिखाने वाली कई हिन्दी फिल्में आ चुकी हैं, लेकिन इन सबमें राजेश खन्ना और तनुजा अभिनीत फिल्म 'हाथी मेरे साथी'(1971) का नाम सबसे पहले लिया जाता है। अपनी रिलीज के इतने वर्षों बाद भी जब इस फिल्म का जिक्र होता है तो चेहरे पर एक मुस्कान बिखर जाती है। वो दृश्य आंखों के सामने घूमने लगते हैं, जिनमें हाथी दोस्त की तरह राजेश खन्ना का साथ निभाता है। उसके परिवार को अपना परिवार समझता है। यानी भावनाओं से भरे ये दृश्य अपनापन का अहसास कराते हैं। इस हफ्ते रिलीज हुई विद्युत जामवाल की फिल्म 'जंगली' में भी हाथियों के साथ इंसान की दोस्ती है, लेकिन वह बॉन्डिंग मिसिंग है, जो दर्शकों के दिल में बस जाए। 'द मास्क', 'इरेजर', 'द स्कॉर्पियन किंग' सरीखी फिल्मों के निर्देशक अमरीकन चक रसेल ने 'जंगली' को डायरेक्ट किया है। फिल्म के एक्शन सीक्वेंस पर तो अच्छा काम किया गया है, लेकिन कहानी ऐसी है, जो सिर्फ पुराने फॉर्मूलों का दोहराव है। यानी 'जंगली' में ताजगी और नयापन दूर-दूर तक नहीं है।
'जंगली' कहानी है राज नायर (विद्युत जामवाल) और चंद्रिका एलीफेंट सेंचुरी की। पेशे से पशु चिकित्सक राज मुंबई में रहता है। जबकि उसके पिता दीपांकर नायर एलीफेंट सेंचुरी को संभालते हैं। राज दस साल से चंद्रिका नहीं आया है, क्योंकि वह अपने पिता से नाराज है। उसे लगता है कि जब उसकी मां कैंसर से जूझ रही थी, तो उसके पिता उसे इलाज के लिए बाहर नहीं लेकर गए और इस कारण वह जिंदगी की जंग हार गई। आखिर अपनी मां की दसवीं बरसी पर राज चंद्रिका आता है। चंद्रिका में उसकी बचपन की दोस्त शंकरा (पूजा सावंत) भी रहती है, जो अब महावत बन गई है। उसकी जिंदगी भी दीपांकर की तरह हाथियों में घुल-मिल गई है। इधर, मुंबई में रहने वाली एक वेबसाइट की जर्नलिस्ट मीरा राय (आशा भट्ट) दीपांकर के इंटरव्यू के लिए चंद्रिका पहुंचती है। राज को पता चलता है कि दिनोंदिन यहां हाथियों का शिकार बढ़ गया है। इस बीच एक रात ताइपे के क्लाइंट की डिमांड पर शिकारी केशव भोला नाम के हाथी को उसके दांतों के लिए मार देता है। दीपांकर उन्हें रोकने का प्रयास करता है, लेकिन शिकारी उसे भी गोली मार देते हैं। इसके बाद कहानी हल्के-फुल्के ट्विस्ट्स के साथ अंजाम तक पहुंचती है।
हाथियों के बीच खो गई 'जंगली' की कहानी
पुराने फॉर्मूले पर कहानी का ताना-बाना बुना है, जो डगमगाती हुई आगे बढ़ती है। स्क्रीनप्ले क्रिस्प नहीं है। रही सही कसर कमजोर संवाद पूरी कर देते हैं। चक रसेल अपने नाम के अनुरूप निर्देशन की कमान संभालने में चूक गए। फिल्म के जरिए वह हाथियों के शिकार और उनके दांतों की तस्करी रोकने का संदेश देने में तो सफल रहे हैं, लेकिन मनोरंजन के मामले में वह पूरी तरह विफल रहे हैं। बॉलीवुड के एक्शन स्टार के रूप में पहचान बना चुके विद्युत की एक्टिंग इम्प्रेसिव नहीं है, लेकिन एक्शन सीन में वह छा गए हैं। एक्शन सीक्वेंस की कोरियोग्राफी उम्दा है। महावत की भूमिका में पूजा स्टनिंग लगी हैं और ध्यान आकर्षित करती हैं। आशा चूंकि जर्नलिस्ट के रोल में हैं तो वह स्क्रीन पर ज्यादातर समय घटनाओं को शूट करने में ही बिजी दिखाई दीं। राज को कलरीपयट्टू की तालीम देने वाले गज्जा गुरु के किरदार में मकरंद देशपांडे की परफॉर्मेंस ठीक है। शिकारी का कैरेक्टर अतुल कुलकर्णी ने प्ले किया है, जिसमें वह जमे हैं। फॉरेस्ट रेंजर के छोटे से रोल में अक्षय ओबेरॉय ओके हैं। गीत-संगीत में दम नहीं है। सिनेमैटोग्राफी ओके है, लेकिन एडिटिंग की गुंजाइश है। अच्छी बात यह है कि फिल्म की अवधि दो घंटे से कम है।एनिमल्स लवर हैं तो ही देखें
'जंगली' में जंगल का माहौल है और जानवरों की इंसान से दोस्ती भी। अपना फायदा देखने वाले लोग भी। लेकिन फिर भी यह ऐसी फिल्म नहीं बन पाई, जो जानवर और इंसान की बॉन्डिंग को खूबसूरती से परिभाषित करे। अगर आप एनिमल्स लवर हैं तो ही 'जंगली' का रुख करें, लेकिन कुछ छूटा हुआ महसूस जरूर करेंगे।रेटिंग: ★★
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