स्टोरी में 'कलंक' ने फर्स्ट क्लास मनोरंजन की उम्मीदों को तबाह कर दिया 


  • स्क्रीनप्ले-डायरेक्शन : अभिषेक वर्मन
  • स्टोरी : शिबानी भटिजा
  • डायलॉग्स : हुसैन दलाल
  • सिनेमैटोग्राफी : बिनोद प्रधान
  • एडिटिंग : श्वेता वेंकट मैथ्यू
  • म्यूजिक : प्रीतम
  • लिरिक्स : अमिताभ भट्टाचार्य
  • स्टार कास्ट : संजय दत्त, माधुरी दीक्षित, वरुण धवन, आलिया भट्ट, सोनाक्षी सिन्हा, आदित्य रॉय कपूर, कुणाल खेमू, हितेन तेजवानी
  • स्पेशल अपीयरेंस : कृति सैनन, कियारा आडवाणी
  • रनिंग टाइम : 168 मिनट
हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर फिल्ममेकर ने बरसों पहले अपने एक आइडिया पर फिल्म बनाने की योजना बनाई, लेकिन वह परवान नहीं चढ़ पाई। अब वह फिल्मकार इस दुनिया में नहीं है, लेकिन पिता के इस ड्रीम को अब बेटे ने हकीकत में बदला है। बेटा है करण जौहर और पिता थे यश जौहर। करण ने अन्य निर्माताओं के साथ उस आइडिया पर भव्य अंदाज में पीरियड लव ​स्टोरी 'कलंक' गढ़ी है, लेकिन यह फिल्म एक ऐसा तमाशा बनकर रह गई, जिसमें इश्क की रूह ही नहीं है। यों कह सकते हैं कि कहानी इतनी उलझी है कि एक समय बाद कोफ्त होने लगती है। निर्देशक अभिषेक वर्मन ने 'कलंक' में भव्य सेट, शानदार स्टारकास्ट और आकर्षक सिनेमैटोग्राफी के जरिए इसे विजुअली तो अच्छा बना दिया, लेकिन बुनियादी रूप से कमजोर स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले ने सबकुछ त​बाह कर दिया है। उस पर फिल्म की लंबाई ने बोरियत को और बढ़ा दिया। यह फिल्म मनोरंजन कम, इरिटेट ज्यादा करती है। ऐसे में इस फिल्म से इश्क करना अपने दामन पर कलंक लगाने जैसा है।

शादी, समझौता और इश्क...

कहानी आजादी से पूर्व की है। इसमें लाहौर के पास हुस्नाबाद में डेली टाइम्स अखबार के संचालक बलराज चौधरी (संजय दत्त) की बहू सत्या (सोनाक्षी सिन्हा) को कैंसर है। डॉक्टर्स ने कह दिया है कि उसके पास ज्यादा से ज्यादा एक-दो साल का समय है। उसका पति देव चौधरी (आदित्य रॉय कपूर) उससे बहुत प्यार करता है। सत्या नहीं चाहती कि उसके दुनिया से जाने के बाद देव गम में टूट कर अपनी जिंदगी तबाह कर ले, इसलिए वह उसकी शादी रूप (आलिया भट्ट) से करा देती है। रूप इसलिए तैयार हो जाती है, क्योंकि इसके बदले सत्या उसकी दोनों छोटी बहनों की पढ़ाई और अन्य जिम्मेदारी पूरी करने वादा करती है। देव और रूप की शादी महज एक समझौता है। इधर एक दिन रूप को अपने घर पर दूर कहीं से गाने के बोल सुनाई देते हैं, वह उस आवाज की मुरीद हो जाती है। उसे पता चलता कि यह आवाज बहार बेगम (माधुरी दीक्षित) की है, जो हीरा मंडी मोहल्ले में रहती है। इस बदनाम बस्ती में बहार बेगम कभी मुजरा किया करती थी, लेकिन अब उसने नाचना बंद कर दिया है और वह अब संगीत की तालीम देती है। रूप, बेगम बहार से संगीत सीखने की इच्छा जाहिर करती है। शुरू में तो मना कर दिया जाता है, पर बाद में घरवाले तैयार हो जाते हैं। जब रूप वहां जाती है तो ज़फर (वरुण धवन) से सामना होता है, जिससे वह मोहब्बत कर बैठती है। यह मोहब्बत आगे जाकर एक ऐसे समीकरण में बदल जाती है, जो काफी जटिल है। कई मोड़ से होती हुई कहानी क्लाइमैक्स तक पहुंचती है।

कहानी का बना दिया पुलिंदा

कहानी में ताजगी लुप्त है। कमजोर प्लॉट पर गढ़ी गई स्क्रिप्ट के स्क्रीनप्ले में भी खामियों का अम्बार है। कहानी में रूप और जफर का इश्क है तो हुस्नाबाद में बिगड़ता कौमी माहौल, एक नाजायज औलाद का अपने पिता से बदला लेने की भावना और बंटवारे की आहट भी है। लेकिन इन सबको इस तरह से उलझा दिया गया ​है कि कुछ भी ढंग से उभरकर सामने नहीं आ पाता। इश्क की कशिश भी ऐसी नहीं है, जो दर्शकों के दिलों को गहराई से छू सके। रफ्तार धीमी है सो अलग। कई दफा तो ऐसा लगता है जैसे कहानी रेंग रही हो। यहां तक कि कई दृश्य तो इतने लंबे हैं कि इस बीच झपकी भी आ जाती है। निर्देशन पर अभिषेक वर्मन की मजबूत कमान नहीं दिखती। वह भव्य सेट की खूबसूरती में ही मंत्रमुग्ध होकर बाकी आस्पैक्ट्स पर ध्यान देना भूल गए।

आंखों का काजल कर देता है घायल

वरुण अपनी परफॉर्मेंस के बूते ध्यान बटोरने में कामयाब रहे हैं। कैरेक्टर के मिजाज को भांपते हुए उन्होंने फर्स्ट क्लास काम किया है। उनकी आंखों का काजल घायल कर देता है। खूबसूरत आलिया में किसी भी तरह के किरदार में ढल जाने की खूबी है। यहां भी उन्होंने अच्छी एक्टिंग की है। वरुण के साथ उनकी सिजलिंग कैमिस्ट्री है। आदित्य की परफॉर्मेंस सराहनीय है। माधुरी दीक्षित की स्क्रीन पर चमकदार अपीयरेंस है। छोटी भूमिका में सोनाक्षी सिन्हा प्यारी लगी हैं। संजय दत्त भी अपना काम ठीक से कर गए हैं, पर उनके कैरेक्टर को विस्तार नहीं दिया गया। खलनायक की भूमिका में कुणाल खेमू मौजूदगी दर्ज कराते हैं। 'कलंक', 'घर मोरे परदेसिया', 'फर्स्ट क्लास' जैसे गाने अच्छे बन पड़े हैं। वहीं 'फर्स्ट क्लास' में कियारा आडवाणी और 'ऐरा गैरा' सॉन्ग में कृति सैनन स्पेशल अपीयरेंस में अच्छी लगी हैं। प्रोडक्शन व सेट डिजाइनिंग उम्दा है, लेकिन कई मामलों में चौंका देने वाली है। यानी रियलिटी से परे भव्यता दर्शाने की कोशिश की है। वेशभूषा, कोरियोग्राफी, लोकेशंस व सिनेमैटोग्राफी आकर्षक है। संपादन ढीला है। ​एडिटर श्वेता वेंकट मैथ्यू ने एकदम निराश किया है।

भव्यता मनोरंजन की गारंटी नहीं : जिस तरह हर चमकती चीज सोना नहीं होती, वैसे ही भव्यता और स्टारकास्ट का मेला फिल्म एंटरटेनिंग होने की गारंटी नहीं है। 'कलंक' में फिल्म के मूल तत्व कथा-पटकथा में लापरवाही बरती गई है। फिल्म के डायलॉग 'इस रिश्ते में इज्जत होगी, प्यार नहीं' की तर्ज पर 'कलंक' को बयां करें तो इस फिल्म में भव्यता तो है, पर मनोरंजन नहीं है। बहरहाल, यह आपका डिसीजन है कि आप इस फिल्म की इश्क में पड़ना चाहेंगे या इसे 'कलंक' समझकर देखने से बचेंगे।

रेटिंग: ½