एजुकेशन सिस्टम के पिच पर चीटिंग का खेल

फिल्म का बेसिक प्लॉट अच्छा है, मगर फिल्म रसहीन है। लिखावट पर थोड़ी मेहनत की जाती तो यह मुद्दे को उठाने के साथ अच्छी मनोरंजक भी साबित होती।


  • राइटिंग-डायरेक्शन : सौमिक सेन
  • डायलॉग्स : जूही सकलानी, मिशिका शेखावत, सौमिक सेन
  • म्यूजिक : गुरु रंधावा, रोचक कोहली, कृष्णा सोलो, कुणाल-रंगोन, अग्नि, सौमिक सेन
  • सिनेमैटोग्राफी :  वाय. अल्फोंस रॉय
  • एडिटिंग : दीपिका कालरा
  • स्टार कास्ट : इमरान हाशमी, श्रेया धन्वंतरी, स्निघादीप चटर्जी, मनुज शर्मा, राजेश जयेस, वरुण टामटा, तन्मय लाहिड़ी
  • रनिंग टाइम : 120 मिनट
एंट्रेंस टेस्ट हो या फिर कॉम्पीटिशन एग्जाम... देश में पिछले कुछ सालों से इनमें चीटिंग का खेल बहुत बढ़ गया है। चीटिंग के नए-नए तरीके अपनाए जा रहे हैं। अभ्यर्थी के बदले दूसरे लोग परीक्षा देकर उसे पास करवा रहे हैं। चूंकि टॉप के इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट कॉलेज में एडमिशन के लिए स्टूडेंट्स पर काफी प्रेशर होता है, वहीं पैरेंट्स अपने बच्चे का प्रतिष्ठित संस्थान में एडमिशन के लिए सबकुछ दांव पर लगा देते हैं। इसी प्रेशर का फायदा चीटिंग माफिया उठा रहे हैं और पैसे बना रहे हैं। एजुकेशन सिस्टम को दीमक की तरह चट कर रहे चीटिंग के इस खेल का खुलासा निर्देशक सौमिक सेन ने फिल्म 'वाय चीट इंडिया' में किया है। कहानी में राकेश सिंह उर्फ  रॉकी (इमरान हाशमी) प्रॉक्सी एग्जामिनेशन स्कैम माफिया है। वह एजुकेशन सिस्टम की खामियों का जमकर फायदा उठाता है और ब्रिलिएंट, लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर स्टूडेंट्स को यूज करता है। उन स्टूडेंट्स को रईसों के बच्चों की जगह एंट्रेंस एग्जाम दिलवाता है और बदले में उन्हें पैसे देता है, लेकिन आगे जाकर उसका यह खेल गलत पड़ जाता है।

रूखी-रूखी सी लगती है फिल्म

बेसिक प्लॉट अच्छा है लेकिन फिल्म थोड़ी रूखी-रूखी सी है। स्क्रीनप्ले टाइट होता तो यह बेहतर मनोरंजक फिल्म बन सकती थी। 'गुलाब गैंग' का निर्देशन कर चुके सौमिक सेन ने इस फिल्म पर पकड़ बनाए रखने की कोशिश की है। यही वजह है कि सब्जेक्ट ऑडियंस को कनेक्ट करता है, मगर बीच-बीच में रिदम टूट भी जाता है। पहला हाफ अच्छा बन पड़ा है, लेकिन दूसरा हाफ हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ता है, जिससे बोरियत महसूस होने लगती है। डायलॉग्स इम्प्रेसिव हैं, लेकिन फिल्म का क्लाइमैक्स उतना प्रभावशाली नहीं है, जितना कि यह सब्जेक्ट है। इमरान के कैरेक्टर में ग्रे शेड है, जिसमें उन्होंने खुद को अच्छी तरह से ढाला है। उनकी एक्टिंग में मैच्योरिटी झलकती है। श्रेया धन्वंतरी की यह पहली हिन्दी फिल्म है, जिसमें उन्होंने अच्छी परफॉर्मेंस देने का प्रयास किया है। स्निघादीप चटर्जी और अन्य सपोर्टिंग कास्ट का काम ठीक-ठाक है। गीत-संगीत कामचलाऊ है। फिल्म दो घंटे की है, फिर भी एडिटिंग की गुंजाइश है। सिनेमैटोग्राफी ओके है।

क्यों देखें : फिल्म एजुकेशन सिस्टम में गड़बड़ी और चीटिंग माफियाओं की दखल की पोल खोलती है। सब्जेक्ट अच्छा है, लेकिन इसमें सिनेमाई कैनवास पर उतनी अच्छी तरह से रंग नहीं भरे गए। बहरहाल, अपनी चॉइस के अनुसार मूवी देखने का निर्णय लें।

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